जब शरद यादव की जिद्द पर ताऊ ने लालू को बनवाया बिहार का मुख्यमंत्री

हरियाणा के साथ शरद यादव का रहा खासा नाता, ताऊ के पास हरियाणा भवन में रुकते थे
 
बिहार का मुख्यमंत्री

जब शरद यादव की जिद्द पर ताऊ ने लालू को बनवाया बिहार का मुख्यमंत्री


-हरियाणा के साथ शरद यादव का रहा खासा नाता, ताऊ के पास हरियाणा भवन में रुकते थे


समाजवाद की एक आवाज दो दिन पहले खामोश हो गई। सात बार लोकसभा के सदस्य रहे और चार बार राज्य के मेम्बर रहे शरद यादव का बीमारी के बाद निधन हो गया। शरद यादव का हरियाणा के साथ भी विशेष नाता था। देवीलाल के साथ शरद यादव ने डेढ़ दशक तक सियासत की। चौ. देवीलाल ही वो शख्स थे जिन्होंने शरद यादव को वी.पी. सिंह की सरकार में मंत्री बनाया था। जब देवीलाल हरियाणा के मुख्यमंत्री थे, तब शरद यादव अनेक बार हरियाणा भवन में उनके पास आकर रुकते थे। तीसरे मोर्चेे के पैरोकारों में शरद यादव भी देवीलाल के साथी रहे। खास बात ये है कि शरद यादव के जोर-आजमाइश करने पर ही ताऊ देवीलाल ने पहली बार 1990 में लालू यादव को बिहार का मुख्यमंत्री बनाया था। दरअसल 1974 में जबलपुर से उपचुनाव जीतकर शरद यादव राजनीति में आए। शरद यादव जयप्रकाश नारायण की ओर से चलाए गए आंदोलन के प्रमुख चेहरों में से एक थे। इसके बाद वे जनता दल में कई बड़े पदों पर रहे। इसी दौरान ही ही उनका वास्ता चौधरी देवीलाल के साथ पड़ा।

शरद यादव ने बिहार के उस समय के दो युवा नेताओं लालू यादव और नीतिश कुमार की मुलाकात चौ. देवीलाल के साथ करवाई थी। इस मुलकात के कुछ दिनों बाद ही तब मजाकिया अंदाज में देवीलाल ने शरद यादव से कहा था ‘आपके दोनों चंगू-मंगू कहां हैं?’ बाद में साल 1990 में चौ. देवीलाल की बदौलत ही लालू यादव पहली बार बिहार के मुख्यमंत्री बने थे। लालू यादव को मुख्यमंत्री बनवाने के लिए शरद यादव ने एडी-चोटी का जोर लगाया था। शरद यादव, लालू यादव की दोस्ती एवं ताऊ देवीलाल द्वारा लालू प्रसाद यादव को मुख्यमंत्री बनवाने के पीछे एक रोचक प्रसंग और कहानी जुड़ी हुई है। संकर्षण ठाकुर अपनी किताब ‘बिहारी ब्रदर्स’ में लिखते हैं कि मार्च 1990 में बिहार में चुनाव हुए। जनता दल ने अपने बलबूते पर ही 324 में से 132 सीटों पर जीत हासिल कर ली। जनता दल के साथ कम्यूनिस्ट पार्टी भी थी। ऐसे में एक अच्छा बहुमत गठबंधन के पास था। लालू यादव उस समय लोकसभा के सदस्य थे और मुख्यमंत्री पद के दावेदार भी। लालू भागे-भागे पटना पहुंचे और मुख्यमंत्री की रेस में शामिल हो गए। 


मांडा के राजा थे लालू के खिलाफ


मांडा के राजा और तत्कालीन प्रधानमंत्री वी.पी.सिंह अब लालू के साथ नहीं थे। वे एक दलित नेता को बिहार की कमान सौंपना चाहते थे। वी.पी. सिंह की दलील थी कि लालू तो बिहार विधानसभा के सदस्य भी नहीं है। ऐसे में उन्हें तो मुख्यमंत्री बनाने का प्रश्र ही नहीं उठता है। वी.पी. सिंह की पसंद थे रामसुंदर दास। दास इससे पहले भी साल 1979 से 80 के बीच मुख्यमंत्री रह चुके थे। राजनीति में कदम रखने वाले पूर्व प्रधानमंत्री चौधरी चरण सिंह के बेटे अजीत सिंह ने भी वी.पी. का समर्थन किया। अब लालू यादव को मुख्यमंत्री बनवाने के लिए बीच में आए उनके दोस्त शरद यादव। शरद यादव जानते थे वी.पी. सिंह नहीं मानेंगे। ऐसे में शरद यादव और लालू ताऊ की शरण में आ गए। उधर, वी.पी. सिंह ने रामसुंदर दास को विधायक दल का नेता चुनने के लिए अजीत सिंह को पटना भेज दिया। रामसुंदर दास की टीम को मजबूत करने के लिए जॉर्ज फर्नांडीस और सुरेंद्र मोहन को भी पटना भेजा गया। पर उधर, लालू यादव आलाकमान के फरमानों को सुनने के मूड में नहीं थे। 


जब ताऊ की शरण में आए तीन यादव


शरद यादव और लालू जनता दल की गुटबाजी का सहारा लेकर एक गहरी चाल चल चुके थे। उन्होंने विधायक दल का नेता चुनने के लिए चुनाव कराने की मांग कर दी। उन्हें चौधरी देवीलाल का समर्थन मिल रहा था। बुजुर्ग जाट ने दो यादवों शरद और मुलायम सिंह को संकटग्रस्त तीसरे यादव के समर्थन का प्रचार करने पटना भेज दिया। इधर लालू ने इस बड़ी चुनौती से लडऩे के लिए खुद एक बड़ा मोर्चा खोल दिया। उन्होंने चंद्रशेखर से भी मदद मांगी। वही चंद्रशेखर जिसका विरोध लालू करते आए थे। पर लालू ने विरोध करते हुए भी निजी रिश्ते बनाए रखने की नीति अपनाई थी जिसका फायदा मिला। चंद्रशेखर को मनाने के लिए लालू ने उनके दर पर जाकर कहा ....यह राजा हमारी संभावनाओं को खत्म करने पर तुला हुआ है.. उन्होंने लगभग एक छोटे बच्चे की तरह शिकायत की, ‘‘कृपया हमारी मदद कीजिए, वरना वीपी सिंह अपने आदमी को बिहार का मुख्यमंत्री बना देंगे। वी.पी. सिंह के धुरविरोधी चंद्रशेखर ने लालू को आश्वासन दे दिया। जिस दिन नेता के चुनाव के लिए जनता दल के विधायकों की बैठक थी, वहां अचानक मुख्यमंत्री पद के दो के बजाय तीन दावेदार प्रकट हो गए। रघुनाथ झा चंद्रशेखर के उम्मीदवार के रूप में दौड़ में शामिल हो गए थे। निस्संदेह वे मुख्यमंत्री पद के गंभीर उ मीदवार नहीं थे। वे वहां सिर्फ विधायक दल के वोटों का विभाजन करने आए थे, ताकि लालू यादव को फायदा हो जाए। लालू यादव ने विरोधी वोटों को बांटने की इसी रणनीति के सहारे आगे भी बिहार पर राज किया। रघुनाथ झा को अपने मिशन में अच्छी सफलता मिली। वोट जाति के आधार पर विभाजित हो गए। हरिजनों ने रामसुंदर दास के लिए वोट किया, सवर्णों ने रघुनाथ झा का साथ दिया। लालू मामूली अंतर से जीत गए। उन्हें पिछड़ी जाति के अधिकांश वोट मिल गए। लेकिन अभी तो और नाटक होने बाकी था। 


फिर ताऊ को गवर्नर को करना पड़ा


 फोन विधायक दल में लालू यादव की चतुराई से तिलमिलाए अजीत सिंह ने उन पर जवाबी हमले की जिम्मेदारी खुद पर ले ली। वे चुनाव में लालू यादव को हराने में असफल रहे थे, लेकिन मुख्यमंत्री कार्यालय तक पहुँचने की राह में वे अभी भी उनका पसीना बहा सकते थे। वे चुपचाप बिहार के राज्यपाल मोहम्मद यूनुस सलीम के पास गए जो लकदल से जुड़े रहे थे।

अजीत सिंह ने राज्यपाल को लालू यादव के चुनाव पर केंद्र की स्वीकृति की मुहर लगने तक शपथ ग्रहण समारोह स्थगित रखने के लिए तैयार कर लिया। यूनुस सलीम के लिए अजीत सिंह की बात ठुकराना मुश्किल था। वे अजीत सिंह के पिता चौधरी चरण सिंह के नेतृत्व के समय लोक दल के उपाध्यक्ष रह चुके थे। इसके अलावा, अजीत सिंह देश के प्रधानमंत्री वी.पी. सिंह से अधिकार प्राप्त करके बात कर रहे थे। वे दुविधा में थे। एक ओर लालू यादव थे। विधानसभा में बहुमत प्राप्त दल के विधिवत निर्वाचित नेता। लालू शपथ दिलाने के लिए उन्हें लगातार फोन कर रहे थे। राज्यपाल ने बीच का आसान रास्ता निकाला और दिल्ली की उड़ान भरने का निर्णय ले लिया। लालू यादव को किसी प्रकार राज्यपाल की योजना की हवा लग गई और वे उनके पीछे हवाई अड्डे तक गए। रास्ते भर वे ड्राइवर को एक्सेलरेटर दबाने के लिए बोलते रहे और राज्यपाल को कोसते रहे। ‘‘इस गवर्नर को राइट, रॉन्ग, और ड्यूटी के बारे में समझाना पड़ेगा। इलैक्टेड आदमी का ओथ (शपथ ग्रहण) कैसे नहीं करा रहा है?’’ लेकिन जब तक उनका काफिला हवाई अड्डे पहुंचा, राज्यपाल का विमान उड़ चुका था। लालू यादव बहुत गुस्से में थे। घर पर आते ही लालू ने देवीलाल को फोन किया, जो केंद्र सरकार में नंबर 2 थे।

‘‘क्या चौधरी साहेब, ये आपके राज में क्या हो रहा है? हम इलेक्टेड सी.एम. हैं और गवर्नर अजीत सिंह के कहने पर ओथ से पहले ही भाग गया!’’ देवीलाल का भी यूनुस सलीम के साथ लोक दल के समय से लंबा संबंध रहा था। सलीम राजनीति में उनसे बहुत कनिष्ठ थे। वे यह सुनकर भडक़ गए। उन्होंने दिल्ली में बिहार के राज्यपाल से संपर्क किया और उन्हें निर्देश दिया कि वे पटना लौट जाएं और लालू यादव को मुख्यमंत्री पद की शपथ दिलाएं। आखिरकार 10 मार्च, 1990 को लालू यादव ने बिहार के मुख्यमंत्री के रूप में शपथ ली। वे राजभवन के बाहर शपथ लेनेवाले पहले मुख्यमंत्री बने।