हरियाणा में ‘फ्री हैंड’ के चक्कर में  ‘हैंड्स फ्री’ होकर रह गई कांग्रेस!

जातीय धु्रवीकरण के चलते तीसरी बार सत्ता में आने में कामयाब हुई भाजपा
 
पूर्व मुख्यमंत्री भूपेंद्र सिंह हुड्डा के दबाव की रणनीति का पार्टी का चुनाव में हुआ भारी नुक्सान


हरियाणा के विधानसभा चुनाव में इस बार कांग्रेस की उम्मीदों से बिल्कुल विपरीत आए परिणामों ने जहां कांग्रेस प्रदेश नेतृत्व को अचम्भे में डाल दिया तो वहीं शीर्ष नेतृत्व भी इस चुनाव में कांग्रेस को लगे इस बड़े झटके के बाद मंथन पर मजबूर हो गया है। सियासी पर्यवेक्षकों का मानना है कि कांग्रेस को तमाम कयासों के विपरीत मिले नतीजों को लेकर मंथन में जो बड़ा कारण उभरकर सामने आया है, वह यह है कि पार्टी हाईकमान को पूर्व मुख्यमंत्री चौ. भूपेंद्र सिंह हुड्डा को रणनीति बनाने से लेकर टिकट आवंटन में दिया गया फ्री हैंड ही पार्टी के लिए महंगा सौदा साबित हुआ और यही वजह रही कि जातीय धु्रवीकरण को साधने में भाजपा कामयाब रही और कांग्रेस ऊपरी हवा के चलते जातीय असंतुलन एवं आपसी गुटबाजी में इस कद्र उलझ गई कि हरियाणा एक बार फिर पार्टी के हाथ से निकल गया और भाजपा तीसरी बार सत्ता में आने में कामयाब रही। खास बात यह है कि कांग्रेस शीर्ष नेतृत्व ने विधानसभा चुनाव में पूर्व मुख्यमंत्री चौ. भूपेंद्र सिंह हुड्डा को फ्री हैंड दिया और उसी का नतीजा रहा कि कांग्रेस हुड्डा के वर्चस्व के आगे पूरी तरह से बेबस नजर आई और एक तरह से हैंड्स फ्री होकर रह गई। कांग्रेस ने 39.09 प्रतिशत वोट हासिल करते हुए 37 सीटों पर जीत हासिल की। सभी सर्वे में कांग्रेस को स्पष्ट बहुमत दिखाया जा रहा था

, लेकिन सभी आंकलन गलत साबित हुए। विधानसभा चुनाव से करीब 5 माह पहले मई में हुए संसदीय चुनाव में कांग्रेस ने 43 फीसदी वोट के साथ 5 सीटों पर संसदीय सीटों व 44 विधानसभा सीटों पर जीत हासिल की थी और विधानसभा चुनाव में पार्टी का ग्राफ उठने के बावजूद जिस तरह से नीचे आया है, उसके पीछे के कारणों को लेकर पार्टी नेतृत्व लगातार मंथन करता नजर आ रहा है। 


हाईकमान पर लगातार दबाव की रणनीति बनाते रहे हुड्डा


उल्लेखनीय है कि पिछले करीब 19 वर्षों से हरियाणा कांग्रेस में भूपेंद्र सिंह हुड्डा पूरी तरह से हावी नजर आ रहे हैं। वे 10 साल तक मुख्यमंत्री रहे और उसके बाद भी लगातार उनका ही वर्चस्व रहा है। 2007 से लेकर 2014 तक हुड्डा के भरोसेमंद फूलचंद मुलाना हरियाणा प्रदेश कांग्रेस के अध्यक्ष रहे। इसके बाद अप्रैल 2022 में हुड्डा ने ही दबाव की रणनीति बनाते हुए कुमारी सैलजा की जगह उदयभान को कांग्रेस का प्रदेशाध्यक्ष बनवाया। इससे पहले हुड्डा के दबाव के बाद ही दीपेंद्र हुड्डा को राज्यसभा का सदस्य बना दिया। यही वजह है कि चुनाव-दर-चुनाव कांग्रेस की गुटबाजी बढ़ती चली गई और कांग्रेस का ग्राफ ऊपर-नीचे आता रहा। 2005 में कांगे्रस ने 42.46 प्रतिशत वोट के साथ 67 सीटों पर जीत हासिल की थी। 2009 में कांग्रेस के 35.08 प्रतिशत वोटों के साथ 40 विधायक चुनकर आए। 2014 में कांग्रेस को महज 15 सीटों पर जीत मिली और उसका वोट बैंक भी 20.58 प्रतिशत ही रह गया। 2019 के चुनाव में कांग्रेस 28 प्रतिशत वोट के साथ 31 सीटों पर जीत दर्ज करने में कामयाब हुई।

अब इस चुनाव में भी कांग्रेस को 39.09 प्रतिशत वोट के साथ 37 सीटों पर जीत प्राप्त हुई है। सियासी विश्लेषक मानते हैं कि कांग्रेस के हाथ से इस बार दलित वोट भी छिटक गया। इसकी मुख्य वजह रही कि भाजपा ने कांग्रेस पर दलित विरोधी होने का आरोप लगाया। कांग्रेस के बड़े नेताओं ने इस मुद्दे को गंभीरता से नहीं लिया और खामोशी साधे रहे। इसका नतीजा यह रहा कि संसदीय चुनाव में जो दलित वोट कांग्रेस को मिला था, वो भी कांग्रेस के हाथ से निकलकर भाजपा के साथ चला गया।
कांग्रेस के बड़े नेता एक-एक करके छोड़ गए पार्टी


गौरतलब है कि साल 2005 में कांग्रेस को 90 में से 67 सीटों पर जीत मिली थी। तब कांग्रेस ने यह चुनाव चौ. भजनलाल के नेतृत्व में लड़ा था। शीर्ष नेतृत्व ने भजनलाल की बजाय चौ. भूपेंद्र सिंह हुड्डा को मुख्यमंत्री बना दिया। हुड्डा ने साल 2002 में जींद के कंडेला गांव से किसानों के पक्ष में पदयात्रा निकालकर सुर्खियां बटोरी थीं। इससे पहले भूपेंद्र सिंह हुड्डा 1991, 1996 और 1998 में लगतार तीन चुनाव चौ. देवीलाल जैसे नेता को हराकर एक बड़े जाट नेता के रूप में उभरकर सामने आए थे। हुड्डा 2005 से लेकर 2014 तक लगातार मुख्यमंत्री रहे। खास बात यह है कि हुड्डा का कांग्रेस के कई बड़े नेताओं से छत्तीस का आंकड़ा रहा। मुख्यमंत्री न बनाए जाने से नाराज चौ. भजनलाल व उनके बेटे कुलदीप बिश्रोई ने दिसंबर 2007 में हरियाणा जनहित कांग्रेस का गठन कर लिया था। इसी तरह से साल 2014 में पूर्व केंद्रीय मंत्री चौ. बीरेंद्र सिंह भी कांग्रेस को छोड़ गए, यह बात अलग है कि लंबे समय तक भाजपा में रहने के बाद इस साल संसदीय चुनाव से पहले बीरेंद्र सिंह वापस कांग्रेस में लौट आए।

इनके अलावा हुड्डा से नाराजगी के चलते राव इंद्रजीत सिंह, डा. अशोक तंवर, किरण चौधरी जैसे नेता भी कांग्रेस को अलविदा कह गए। हालांकि बीरेंद्र सिंह की तरह से डा. अशोक तंवर भी इस साल विधानसभा चुनाव से ठीक पहले कांग्रेस में आ गए थे। खास पहलू यह है कि रहा कि हुड्डा निरंतर कांग्रेस हाईकमान पर दबाव बनाते रहे और वे कांगे्रस के भीतर ही उस ग्रुप 23 का भी हिस्सा रहे जो शीर्ष नेतृत्व पर सवाल खड़े करता रहा।


संगठन का न होना भी रहा एक बड़ा कारण


विशेष बात यह है कि 2014 के बाद से कांग्रेस अपना संगठन नहीं बना सकी है। इसकी सबसे प्रमुख वजह भी गुटबाजी रही है। जिलाध्यक्ष, ब्लॉक अध्यक्ष न होने के कारण भी कांग्रेस बूथ स्तर पर मतदाता तक पहुंच न बना सकी। 2014 से लेकर 2019 तक डा. अशोक तंवर कांग्रेस के प्रदेशाध्यक्ष रहे। 2019 से अप्रैल 2022 तक कुमारी सैलजा कांग्रेस की प्रदेशाध्यक्ष रही। वर्तमान में उदयभान प्रदेशाध्यक्ष हैं। तंवर, सैलजा व उदयभान तीनों ही संगठन नहीं बना पाए। कुमारी सैलजा तो खुद भी यह स्पष्ट कह चुकी हैं कि अगर कांग्रेस का संगठन होता तो कांग्रेस और अधिक अच्छा प्रदर्शन कर सकती थी। अनेक बार जिलाध्यक्षों व ब्लॉक अध्यक्षों की सूची तैयार की गई। गुटबाजी के चलते फिर भी हाई कमान इसे जारी नहीं कर सका। इस दौरान जितने भी नेताओं को प्रदेश कांग्रेस का प्रभारी बनाया गया, उन्होंने भी संगठन बनाने को लेकर खूब प्रयास किए और सभी नेताओं को एकजुट करने की पहल भी की, मगर कोई भी प्रभारी न तो कांग्रेस में एकजुटता ला पाया और न ही पार्टी का संगठन बन पाया।