हरियाणा के गुप्ता ब्रदर्स ने 4 जोड़ी जूतों से खड़ा कर दिया 600 करोड़ का साम्राज्य, खाली जेब और लोगों के ताने; आज आप भी हैं इस ब्रांड के दीवाने
क्या आप जानते हैं चीन के बाद भारत फुटवियर का दूसरा सबसे बड़ा वैश्विक उत्पादक है। फुटवियर उद्योग विशेष रूप से कमजोर वर्गों के लिए रोजगार के अधिकतम अवसर भी पैदा करता है और इसलिए यह भारतीय अर्थव्यवस्था का एक महत्वपूर्ण हिस्सा रहा है। लेकिन कुछ दशक पहले, भारत में लोगों का नजरिया बहुत अलग था। लोगों का रुझान अंतरराष्ट्रीय ब्रांडों की ओर अधिक था और वे विदेशों में बने उत्पादों पर अधिक भरोसा करते थे।
इस समय के दौरान, और भारत को ब्रिटिश राज से आजादी मिलने के कुछ साल बाद, धर्म पाल गुप्ता, पुरषोतम दास गुप्ता और राजकुमार बंसल ने आयात पर प्रभुत्व कम करने और निर्भरता की दृष्टि से 1955 में एक घरेलू फुटवियर कंपनी शुरू करने का फैसला किया। उन्होंने हरियाणा के करनाल में 500 वर्ग फुट की दुकान शुरू की और इसे पाल बूट हाउस नाम दिया।
खड़ी कर दी 600 करोड़ रुपये की कंपनी
भले ही काम के शुरुआत में मुश्किलें आई, लेकिन गुप्ता ब्रदर्स ने कोशिश नहीं छोड़ी और आज ये कंपनी 600 करोड़ रुपये की हो चुकी है। उस ब्रांड का नाम तो लगभग सभी लोगों जानते हैं। जी हां, हम बात कर रहे हैं फुटवियर ब्रांड लिबर्टी की।
ये वो समय था, जब सारा काम हाथ से किया जाता था। एक दिन में तीन से चार जोड़ी जूते ही बन पाते थे। धर्मपाल गुप्ता और पुरुषोत्तम गुप्ता उन्हीं चार जोड़ी जूतों को बेचकर किसी तरह से गुजारा कर रहे थे। परिवार के खिलाफ जाकर गुप्ता भाईयों ने जूतों का काम शुरू किया था।
लोगों को स्वदेशी चीजों से जोड़ना चाहते थे गुप्ता ब्रदर्स
गुप्ता ब्रदर्स का मकसद था, लोगों को स्वदेशी चीजों से जोड़ना। आप में अधिकांश लोगों ने इस ब्रांड के जूते भी पहने होंगे, लेकिन इस कंपनी के संघर्ष और उसकी सफलता की कहानी बहुत कम लोग जानते हैं।
हरियाणा के करनाल के रहने वाले पीडी गुप्ता और डीपी गुप्ता ने साल 1944 में शहर के कमेटी चौक पर एक जूते की दुकान खोली। चार जोड़ी जूतों के साथ उन्होंने शुरुआत किया। 'पाल बूट हाउस' नाम से उन्होंने दुकान तो खोली, लेकिन परिवार का साथ न मिला।
जब सब लोग उड़ाने लगे थे मज़ाक!
सगे -संबंधी, दोस्त -यार उनका मजाक उड़ाने लगे। परिवार की नाराजगी झेलने के बाद भी उन्होंने हिम्मत नहीं हारी और काम में लगे रहे। उस दौर में हाथों से जूते बनाए जाते थे, इसलिए दिन भर में मुश्किल से 4 जोड़ी जूते ही बन पाते थे।
जिसे बेचकर दोनों भाई घर का खर्च चलाते थे। इसका मकसद लोगों को बेहतर प्रोडक्ट और उन्हें विदेशी ब्रैंड से मुक्ति दिलाना था। जहां 4 जोड़ी जूते पूरे दिन में बनते थे, वहीं रोज हजारों की संख्या में जूते बनने लगे। तीन सालों के भीतर ही लिबर्टी के नाम के आगे 'पब्लिक लिमिटेड' जुड़ गया।