लखनौर साहिब गुरुद्वारा का इतिहास

लखनौर साहिब गुरुद्वारा का इतिहास
अंबाला शहर और छावनी के साथ लगता गांव लखनौर साहिब सिखों की श्रद्धा का केंद्र हैं। सिखों के दसवें गुरु गुरु गोबिंद सिंह की माता गुजरी जी इसी गांव से थीं। गुरु जी ने भी अपने बचपन के कुछ दिन यहां पर बिताए थे। गुरु के मामा ने भी उनकी दस्तारबंदी इसी गांव में की थी।
सिख संगत के लिए लखनौर साहिब बेहद पावन है और यहां संगतों की तांता लगा रहता है।
-गुरु गोबिंद सिंह की मां माता गुजरी कौर भी इसी गांव से थीं, ऐतिहासिक गुरुद्वारा के दर्शन करने आती हैं संगतें
लखनौर साहिब के गुरुद्वारा साहिब में गुरु श्री गोबिंद सिंह जी द्वारा इस्तेमाल किया गया सामान व शस्त्र आदि संभालकर रखे गए हैं। संगत इनके दर्शन कर निहाल हो जाते हैं। इस ऐतिहासिक गुरुद्वारा साहिब में दर्शन और माथा टेकने के लिए दूरदराज क्षेत्रों से संगत आती हैं। दरअसल यह स्थल सिख इतिहास को समेटे हुए है।
पहले कई नाम सें प्रचलित रहा यह गांव
गांव लखनौर साहिब का पुराना नाम लखनावती, लखनपुर और लखनौती भी बताया जाता है। पंजाबी के लेखक भाई वीर सिंह ने अपनी रचनाओं में दर्ज किया है कि इस धार्मिक महत्व के स्थान पर गुरु गोबिंद सिंह जी ने सैयद शाह मीर पीख को दर्शन दिए थे। यही नहीं करनाल के पीर शाह आरिफ ने भी इसी स्थान पर बड़े आदर के साथ गुरु जी को नमस्कार करके उनके प्रति अपनी आस्था प्रकट की थी। लखनावती, लखनपुर और लखनौती से बाद में इस स्थल का नाम लखनौर साहिब पड़ गया।
----
यह इतिहास समेटे है लखनौर साहिब गुरुद्वारा
लखनौर साहिब अंबाला शहर से करीब दस किलोमीटर दूर है। गांव की आबादी करीब 1400 है। सिख इतिहास के अनुसार सिखों के दसवें गुरु श्री गोबिंद सिंह जी की माता गुजरी कौर का जन्म इसी गांव में हुआ था और इस प्रकार इस गांव को गुरु गोबिंद सिंह जी का ननिहाल होने का गौरव प्राप्त है। गुरु जी जब करीब पांच साल के थे तो वह कुछ समय के लिए गांव लखनौर साहिब में भी रुके थे।
लखनौर साहिब में सहेजकर रखे गुरु श्री गाबिंद सिंह जी के पलंग।
यहीं पर उन्होंने अपनी बाल लीलाएं भी कीं और हर किसी का दिल जीत लिया। इसकी यादें धरोहर के तौर पर श्रद्धालुओं के लिए यहां पूरी श्रद्धा के साथ संभालकर रखी गई हैं। यहां से विदाई के समय गुरु जी अपनी यादगार के तौर पर तीन पलंग, दो लक्कड़ की परांतें तथा कुछ अस्त्र-शस्त्र यहां छोड़ गए। आज भी हजारों की संख्या में श्रद्धालु गुरु साहिब की इन पवित्र निशानियों के दर्शन करके स्वयं को धन्य महसूस करते हैं।
-------
पुराना कुआं खोदा जिसका मीठा था पानी
गांव में जब माता गुजरी कौर और गुरु गोबिंद सिंह आए थे, तो यहां पर कुओं में पानी कड़वा होता था। यहीं पर एक पुराना कुआं भी था, जिसे ठीक करने का फैसला लिया गया। इसकी सफाई करवाकर खुदाई गई की तो पानी निकल गया। यह पानी पीने में काफी मीठा था और लोगों ने इसे गुरु जी का प्रसाद समझा। इसी कुएं से माता गुजरी कौर और अन्य महिलाएं पानी भरा करती थीं।
------
लखनौर साहिब में सहेजकर रखे गुरु श्री गोबिंद सिंह जी के शस्त्र व अन्य वस्तुएं।
गुरु जी की पहली दस्तारबंदी भी लखनौर साहिब में हुई थी
सिख धर्म में दशहरे का खास महत्व है, क्योंकि इसी दिन लखनौर साहिब में गुरु गोबिंद सिंह जी की दस्तारबंदी हुई थी। उनके मामा कृपाल चंद ने विधि-विधान के साथ भांजे बाल गोबिंद सिंह जी की दस्तारबंदी की थी। तभी से गांव लखनौर साहब में दशहरे वाले दिन जबरदस्त मेला आयोजित किया जाता है। इस आयोजन में पंजाब, हरियाणा, उत्तर प्रदेश सहित अन्य राज्यों के श्रद्धालु शामिल होते हैं। विदेश से एनआइआर सिख परिवार अपने बच्चों के साथ इस दिन गुरुद्वारा साहिब में लेकर आते हैं और उनकी दस्तारबंदी करवाते हैं।
--------
इस तरह से पहुंच सकते हैं गुरुद्वारा में
गुरुद्वारा लखनौर साहिब तक अंबाला छावनी और अंबाला शहर से पहुंचा जा सकता है। अंबाला शहर से यदि आप जाना चाहते हैं, तो कालका चौक से अंबाला शहर में आना होगा। इसके बाद अंबाला-हिसार पुल से आगे जलबेड़ा रोड पर आएं। जलबेड़ा रोड से भानोखेड़ी होते हुए गांव लखनौर तक पहुंच सकते हैं। इसी तरह अंबाला छावनी में कालीपलटन पुल से गांव उगाड़ा, बाड़ा, माजरी से लखनौर साहिब पहुंच सकते हैं।
सभी को सत श्री अकाल
गुरूद्वारों और गुरू संगत का इतिहास बरसों पुराना है। हमारी परंपरा और सभ्यता गुरू पंगत और संगत के इर्द गिर्द घूमती रही है। गुरूद्वारों ने ही हमारी संस्कृति को जान दी है, सम्मान दिया है। ऐतिहासिक गुरूद्वारों की श्रृंखला में दसवीं पातशाही गुरूद्वारा गांव लोह सिंबली का नाम आता है जो अंबाला से 8 किलोमीटर दूरपंजाब के पटियाला में पड़ता है। इस गुरूद्वारा की खासियत यह है कि लुटेन साहब यहां स्थापित है जिसे हम शहतीर कहते हैं। लकड़ी का बीम भी इसे बोल सकते हैं। इस बीम की खास बात यह है कि इसे जितनी बार भी नापते हैं इसकी लंबाई चौड़ाई हमेशा बदलती रहती है। ऐतिहासिक दस्तावेजों की बात करें तो दशम गुरू गोविंद सिंह जी यहां पधारे थे और उन्हीं के आशीर्वाद से आज तक यह गुरूद्वारा यहां लोगों की सेवा कर रहा है।